Gist of Pravachan - Guwahati Chaturmas 2019

27.08.2019
आत्म - जागृति का पर्व है पर्युषण - समणी डॉ.  सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि जो साधक मनन - चिंतन करेगा, वहीं शरीर और आत्मा के, जड़ और चेतन के, जीव और पुदगल के भेद विज्ञान तक पहुंच सकेगा। शरीर और आत्मा के भेद का ज्ञाता ही आत्म - कल्याण की साधना कर सकेगा। डॉ. समणी ने कहा कि आत्म ज्ञान की प्राप्ति और आत्म साधना के पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा देने के लिए महान् पावन पर्व पर्युषण प्रारम्भ हुआ है। आत्मा के साथ लगे आठ कर्मों को नाश करने, आत्मा के आठ गुणों को प्रकट करने एवं आठ प्रकार के मद से दूर होने के पुरुषार्थ के लिए पर्यूषण के आठ दिन रखे गए। पर्युषण में करणीय कार्यों में प्रतिक्रमण, केश लुंचन, आलोचना, तपश्चरण और क्षामापना से साधक को अपनी साधना में सफलता प्राप्त करा सकता है। अंतगड़ सूत्र का मूल वांचन समणी श्रद्धा निधि ने किया। इसी सूत्र का हिंदी वांचन आलिशा बाफना ने किया। डिंपल ललवाणी ने रात्रि भोजन त्याग पर अपने भाव प्रस्तुत किए। डॉ. समणी सुयशनिधि ने अंतगड़ सूत्र के प्रथम एवं द्वितीय वर्ग का वैज्ञानिक दृष्टि से प्रवचन देते हुए कहा कि बड़े बड़े राज कुमार जब तीर्थंकर भगवान जो सर्वज्ञ सर्वदर्शी होते हैं, उनकी देशना सुनकर भविष्य में अतीत के समान दु:खों को नहीं पाने हेतु आत्म कल्याण के लिए संयम ग्रहण कर ले हैं। संसार के स्वरूप को जानकर हर एक साधक को त्याग व्रत प्रत्याख्यान की ओर अग्रसर होने की भावना रखनी चाहिए।

26.08.2019
परोपकार मानव जीवन का भूषण है - समणी डॉ.  सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि करुणाशील मनुष्यों का शरीर पर - उपकार करने से सार्थक होता है। आचार्य हेमचंद्र के योगशास्त्र में मार्गानुसारी के पैंतीस बोलों में से तेतीसवें बोल में कहा है कि गृहस्थ को परोपकार में तत्पर रहना चाहिए। उपकार के दो रूप है - एक स्वि्पकार, दूसरा परोपकार। अपना पेट भरने के लिए किसी को उपदेश देने की जरूरत नहीं रहती। प्राणीमात्र का सहज स्वभाव है कि वह सबसे पहले अपने सुख की चिंता करता है, और अपना दुःख दूर करने में लगता है। कुछ संत पुरुष ही होते हैं जो अपने दु:ख - सुख की परवाह नहीं करके भी दूसरों के सुख का प्रयत्न करते हैं। यह वृत्ति संतों की और सत्पुरुषों की वृत्ति है। और कुछ लोग होते हैं जो स्वयं के सुख की हानि नहीं कर सकते। अपने स्वार्थ का त्याग नहीं कर सकते। किन्तु साथ ने दूसरों के सुख की भी चिंता करते हैं, अपना पेट भरके दूसरों का पेट भरने की भी भावना होती है। यह वृत्ति मानव की वृत्ति होती है। डॉ. समणी ने कहा कि संसार बड़ा विचित्र है। जो अपने स्वार्थ के लिए, अपने सुख के लिए दूसरों को पीड़ा देते हैं, कष्ट पहुंचाते हैं वे मानव के रूप में दानव हैं। इन्हें भर्तृहरि ने मानव - राक्षस कहा। और कुछ ऐसे भी हैं जो बिना किसी स्वार्थ के, बिना किसी प्रयोजन के निरर्थक ही दुनियां को संताप एवं कष्ट देते रहते हैं। ऐसे लोग संसार के भार हैं, धरती के दूषण हैं।

25.08.2019
सद्गृहस्थ सुशील एवं सदाचारी होने के साथ साथ शिष्टता एवं सभ्यता के नियमों का पालन करता है - समणी डॉ.  सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि जो साधक आत्मा को पवित्र एवं परम विशुद्ध बनाना चाहता है उसके जीवन में लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य - ये चार बातें आवश्यक हैं। लज्जा एक प्रकार के मानसिक संकोच को कहते हैं। आगमकारों का कहना है कि लज्जा बुराई से, अकर्तव्य से, दुष्कर्म से और पाप से करना चाहिए। डॉ. समणी ने कहा कि किसी समय भी यदि विचारों में कोई तूफ़ान आ जाए, किसी अकर्तव्य, या नीचकर्म की ओर झुकाव भी हो जाए तब भी वह अपने कुल, धर्म एवं परंपरा की लज्जा के कारण उससे बच सकता है। जो लज्जावान होगा वह दयावान भी होगा। जिसके हृदय में दया नहीं है, वह वास्तव में इंसान ही नहीं है। डॉ. समणी ने कहा कि संसार में जितने भी धर्म है, पंथ है, और संप्रदाय हैं उन सबका मूल दया है। दयाशील गृहस्थ का अगला गुण बताया है - सौम्यता जिसका अर्थ है शांति, शीतलता और शालीनता। जिसके हृदय में करुणा होती है उसके चेहरे पर, आंखों और वाणी में स्नेह एवं शांति झलकती रहती है। डॉ. समणी ने कहा कि अगर जीवन में सबका विश्वास, प्रेम और सद्भाव प्राप्त करना चाहते हैं तो कभी भी अपनी शांति और सौम्यता को नष्ट होने नहीं देना चाहिए।

24.08.2019
साधना को अपनाने से यह देह धारी मानव देवत्व से विभूषित हो सकता है - समणी डॉ.  सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि काल का एक चक्र होता है। उसमें धर्म से अधर्म तथा अधर्म से पुनः धर्म का संचरण होता रहता है। जब जब संस्कृति में विकृति आती हैं, तब उसका नाश होता है। जो पुरुष परिवर्तन का चक्र चला लेता है वह महापुरुष बन जाता है। अधर्म के फैल रहे अंधकार को युग पुरुष चीरता है और धर्म की ज्योति का प्रवर्तन करता है। कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर डॉ. समणी ने कहा कि कोई भी महापुरुष किसी देश, जाति, समुदाय के नहीं होते। कृष्ण ने किसी से अपना जन्म दिन मनाने के लिए नहीं कहा। मगर उन्होंने जगत का हित किया। इसी कारण उनका जन्म दिन हर कोई मनाता है। प्रवचन सभा को सम्बोधित करते हुए डॉ. समणी ने मार्गानुसारी बोलों में उन्नतीसवां "लोकवल्लभ:" बोल पर विवेचन किया। लोकवल्लभ यानी लोकप्रिय होना चाहिए। लोकप्रियता व्यक्ति अच्छे काम करके प्राप्त कर सकता है और बुरे कामों से भी। परन्तु गलत उल्टे कार्यों से आत्मा के भीतर कर्मों का भार बढ़ जाता है। मन के भावों में मलीनता आ जाती है। इसलिए हर एक व्यक्ति को जीवन में शॉर्ट कट न ढूंढ़ते हुए सही मार्ग को ही चुनना चाहिए। लोकप्रियता का तात्पर्य यहां पर यही कि सेवा, सहयोग, स्नेह एवं विनम्र भाव जैसे सूत्रों को अपनाना है जिससे जीवन में सफलता का उच्च शिखर प्राप्त हो सके। डॉ. समणी ने कहा कि जो लोगों की सेवा करेगा, वहीं लोगों का वल्लभ होगा, यहीं लोकप्रियता का मूल मंत्र है।

23.08.2019
अध्ययन करते - करते अल्पज्ञ मनुष्य भी विशेषज्ञ बन जाते हैं 
                                                 - समणी डॉ.  सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने मार्गानुसारी के सत्ताईसवां बोल - "विशेषज्ञ" और अट्ठाईसवां बोल - "कृतज्ञ" पर प्रकाश डालते हुए कहा कि सद्गृहस्थ को धर्म एवं नीति का विशेषज्ञ होना चाहिए। जो धर्म जीवन सुधार का मूल आधार है, जिसके द्वारा इस लोक और परलोक दोनों को सुधार सकते हैं उस धर्म का ज्ञान प्राप्त करना, और उस विषय में विशेषज्ञ होना - यह गृहस्थ का कर्तव्य है। सांसारिक विषयों में तो गृहस्थ स्वयं दक्ष होता ही है परन्तु विशेषज्ञ का यहां तात्पर्य अलग है। डॉ. समणी ने कहा कि विद्या से मनुष्य विनय संपन्न बनता है, विनय से योग्यता प्राप्त करता है और योग्य व्यक्ति संसार में आनंद और यश की उपलब्धि करता है। आज के युग में विद्या जरूर बढ़ रही हैं, पर विद्या की बेल बांझ बनती जा रही है, उस पर योग्यता का फल नहीं आ रहा है। जब तक विद्या की बेल को धर्म - ज्ञान का पोषक खाद नहीं मिलेगा तब तक वह बेल बांझ ही रहेगी, उस पर योग्यता का फल नहीं लगेगा। डॉ. समणी ने कृतज्ञता का अर्थ बताते हुए कहा कि जो भी हमारे उपकारी है, उनके प्रति हमारी भावना में स्नेह, सन्मान और आदर होना चाहिए। यहीं कृतज्ञता का मूल रूप है।

22.08.2019


दुःख सागर में डूबे हुए मनुष्यों को जो सहारा देता है, वह सद्गृहस्थ होता है - समणी डॉ.  सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि समाज के व्यक्ति को तो अपना उत्तरदायित्व समझना होता है, और उसे निभाना होता है। समाज का प्रत्येक प्राणी एक दूसरे पर आधारित है, एक की गाड़ी दूसरे के सहारे चलती है। इसलिए परस्पर में उत्तरदायित्व की भावना, सहयोग की भावना और पोष्य - पोषक की भावना का विकास होना अनिवार्य है। डॉ. समणी ने कहा कि एक सद्गृहस्थ का जीवन महावृक्ष के समान माना गया है। वृक्ष का वृक्षत्व इसी में है कि वह अपने फल - फूल, शाखा प्रशाखाओं का विस्तार करके हजारों जीवों को आश्रय देता रहे। सद्गृहस्थ स्वयं का विकास करता हुआ दूसरों के विकास में सहायक बनें। सद्गृहस्थ के मार्गानुसारी बोलों में छब्बीसवां बोल समझाते हुए डॉ. समणी ने कहा कि गृहस्थ को दीर्घदृष्टि होना चाहिए। दीर्घदृष्टि बनने का आशय बुद्धि का सदुपयोग करने से है। दीर्घदृष्टि के चार पहलू बताते हुए कहा कि जो काम आज प्रारम्भ कर रहे हैं, उसके भविष्य के विस्तार एवं विकास की कल्पना कर समाधान आज ही खोज लेना दीर्घदृष्टि का एक रूप है। दूसरा रूप है कि समाज में आज जो रूढ़ियां या गलत धारणाएं चल रही हैं, उनके भावी परिणाम को सोचे, कि आने वाले भविष्य में उनके कितने खतरनाक एवं अहितकर परिणाम आयेंगे, ऐसा विचार करके गलत रूढ़ियों को समाप्त करने का प्रयास करना। दीर्घदृष्टि का तीसरा पहलू है - योग्यायोग्य का विचार और चौथा है गंभीरतापूर्वक निर्णय करना। डॉ. समणी ने कहा कि दीर्घदृष्टि जीवन में बहुत ही आवश्यक है। परन्तु दीर्घसूत्री नहीं बनना चाहिए। सोच विचार कर आखिर कुछ कर ही लेंगे तभी जीवन में आनंद सुख एवं समृद्धि का नया प्रकाश फैल सकेगा।

21.08.2019


 ज्ञान - दान देनेवाले गुरुजनों के प्रति आदर एवं बहुमान की भावना रहें - समणी डॉ.  सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने मार्गानुसारी के पैंतीस बोलों में से चौबीसवां बोल पर प्रकाश डालते हुए कहा कि एक सद्गृहस्थ को त्यागी, व्रती एवं ज्ञानीजनों की सेवा और आदर करना चाहिए। यह इतना महत्वपूर्ण है कि इसी बात के आधार पर समाज में सदाचार एवं ज्ञान की प्रतिष्ठा तथा विकास संभव होता है। डॉ. समणी ने कहा कि भारत आर्थिक दृष्टि से कृषि प्रधान देश है और सांस्कृतिक एवं धार्मिक दृष्टि से ऋषि प्रधान। ऋषियों के त्याग के कारण जनता उन्हें ही अपना आदर्श एवं आराध्य मानती आई है। भोग में मनुष्य स्वच्छंद होकर चलता है, जबकि त्याग मार्ग में उसे अपने आप पर संयम एवं नियंत्रण करके चलना पड़ता है। अपने आप पर संयम वहीं कर सकता है, जिसकी आत्मा में बल होगा। आचार्य हेमचंद्र के मार्गानुसारी के बोलों में बताया गया है कि जो सद्गृहस्थ स्वयं त्याग के कठोर मार्ग पर अभी तक नहीं चल सका है, वह अपने गृहस्थ आश्रम में रहता हुआ भी त्यागी जनों की सेवा करते, व्रती जनों की पूजा और अनुकम्पा करते रहे तो अपने जीवन को उन्नत बना सकता है। डॉ. समणी ने कहा कि व्रतिजनों की सेवा के साथ ज्ञान वृद्धों की भी सेवा करनी चाहिए। जिसके शारीरिक एवं मानसिक विकास की स्थिति अपनी पूर्णता को पा चुकी है, आयु, अनुभव, ज्ञान आदि दृष्टियों से को वृद्धि के चरम बिन्दु तक पहुंच गया है उसे वृद्ध कहा जाता है। त्यागी जिस प्रकार समाज एवं राष्ट्र में चरित्र का उच्चतम आदर्श उपस्थित करता है, वैसे ही ज्ञानी भी समाज एवं राष्ट्र की नीति एवं कर्त्तव्य का निर्देशक और निर्णायक होता है। भारतीय संस्कृति में जितना गौरव त्यागी का है, उतना ही शिक्षा व ज्ञान देने वालों का भी है।

20.08.2019


जो पुरुषार्थी है वहीं श्री संपन्न होता है - समणी डॉ.  सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि जो समय को जानता है, वह सब कुछ जानता है। सद्गृहस्थ अपनी जीवन चर्या को देश एवं काल के विरोध में नहीं जाने दे, अर्थात् व्यवहार में देश काल की मर्यादा को समझकर चले, उनके विपरीत आचरण नहीं करें, और साथ ही यह भी नहीं कि किसी प्रभाव या भावावेग में आकर बह जाये, देश काल का अंधानुकरण करने लग जाए। देश काल के तकाजे के नाम पर अपनी शक्ति से बाहर दौड़ लगाने लग जाय, यह भी उचित नहीं है। डॉ. समणी ने कहा कि साधक अपनी प्रत्येक चर्या में अपने बलाबल अर्थात् शक्ति - सामर्थ्य को तोलकर ही कदम बढ़ाए। साधक को व्यवहार की उपेक्षा करके मनमाने ढंग से स्वच्छंद होकर नहीं चलना चाहिए। स्वच्छंदता से सामाजिक नियम टूटते हैं, व्यवहार बिगड़ता है और आने वाली पीढ़ी के समक्ष गलत आदर्श उपस्थित होते हैं, गलत परंपराएं बनती हैं। इसलिए स्वच्छंदता न सामाजिक जीवन के लिए हितकर है और न ही साधक जीवन के लिए। डॉ. समणी ने सद्गृहस्थ के लिए प्रेरणा देते हुए कहा कि अपनी शक्ति के उपरांत दिखावा न करें, प्रदर्शन न करें, होड़ न करें और ऐसी बातें भी न बनाएं जो उसे यथार्थ से दूर अंधकार में पटक दें, वह कल्पना में भटक जाए और समय पर अपना अस्तित्व अपने हाथों से ही मिटा दें।

18.08.2019
अतिथि सत्कार से सद्गुणों की उपासना का महत्व बढ़ जाता है 
                                                   - समणी डॉ.  सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने मार्गानुसारी के पैंतीस बोलों में से उन्नीसवें बोल का विवेचन करते हुए कहा कि गृहस्थ अपने धन को अतिथि, साधु एवं दीन की उचित सेवा करने में लगाए और उनका उचित स्वागत सत्कार तथा सेवा करें तो अमृतोपम फल प्राप्त किया जा सकता है। मोक्ष के चार द्वार बताए हैं - दान, शील, तप, भावना। चारों में दान प्रथम है। दान में त्याग की भावना भी रहती है, करुणा की भावना भी आ जाती है। जो देता है, वह किसी सद्भावना से प्रेरित होकर देता है, और अपनी असीम इच्छा का किसी न किसी रूप में विसर्जन भी करता ही है। डॉ. समणी ने कहा कि भारतीय संस्कृति में अतिथि सत्कार की एक बहुत प्राचीन एवं गौरवशाली परंपरा रही है। जैन दर्शन के अन्तर्गत श्रावक के लिए जो बारह व्रत बताए गए हैं उसमें बारहवां व्रत है - अतिथि संविभाग। साधक प्रतिदिन यह भावना करता है कि स्वयं के भोजन में से कोई साधु - त्यागी अतिथि आकर संविभाग - कुछ अंश ग्रहण करें तो धन्य हो जाए। यदि मन में साधु, अतिथि, गुणी एवं दीन गरीबों की सेवा की भावना है, उनका यथोचित स्वागत सत्कार करते हैं तो समझना चाहिए कि गृहस्थ धर्म का पालन हो रहा है। इस लोक में यशकीर्ती प्राप्त होती है और परलोक में पुण्य।


17.08.2019


 संग्रह किया हुआ धन जहर है और त्याग किया हुआ धन अमृत बन जाता है -  समणी डॉ.  सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि भारतीय संस्कृति में गृहस्थ जीवन को सुंदर और सुव्यवस्थित रूप देने के लिए चार पुरुषार्थ बताए गए। गृहस्थ घर में परिवार बनाके बैठा है, समाज और राष्ट्र का दायित्व लेके चला है, उसके सामने धर्म के साथ ही, अर्थ एवं काम का क्षेत्र भी आता है। अर्थ के बिना जीवन नहीं चल सकता और काम के बिना संसार की, परिवार की एवं समाज की वृद्धि नहीं होती। गृहस्थ के लिए अर्थ और काम दोनों ही आवश्यक है। इसलिए धर्म के साथ अर्थ और काम को भी पुरुषार्थ माना गया है। डॉ. समणी ने कहा कि अर्थ और काम का महत्व स्वीकार किया गया है, पर वह अनियंत्रित रूप में नहीं। अर्थ एवं काम संयम और विवेक के साथ स्वीकार किया गया है। अर्थ एवं काम को मर्यादित रखना और विवेक पूर्वक उनका प्रयोग करना इसी उद्देश्य को लेकर उनके पूर्व में धर्म को रखा गया है और अंत में मोक्ष को। यह चार पुरुषार्थों का अविरोधी रूप है जिसकी साधना करना गृहस्थ का दायित्व है।

16.08.2019


 वाणी न बनें बाण - समणी डॉ.  सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि वाणी एक ऐसा दर्पण है जो मनुष्य के ह्रदय की श्रेष्ठता व निकृष्टता का प्रतिबिंब उपस्थित करता है। विवेकी व्यक्ति वाणी के द्वारा दुश्मन को दोस्त और पराये को भी अपना बना लेता है। व्यक्ति भाषा से मधुरता से आसपास के वातावरण को अपने अनुकूल बना लेता है। सम्मान का पात्र बनता है। वहीं दुरुपयोग से अपमान व निंदा को सहन करना पड़ता है। डॉ. समणी ने कहा कि अशांति - कलह का मूल कारण अधिकतर वाणी का दुरुपयोग है। क्रोध में व्यक्ति स्थान बदलने का काम करते हैं। जगह बदलने की अपेक्षा अपनी वाणी को बदलना चाहिए। वाणी बदलने पर जगह बदलने की जरूरत नहीं पड़ती है। श्रावक के वचन व्यवहार पर प्रकाश डालते हुए डॉ. समणी ने कहा कि साधक को थोड़ा बोलने के साथ साथ आवश्यकता होने पर मीठा बोलना चाहिए। विवेक द्वारा बोलने से अनंत पुण्य का संचय होता है।

14.08.2019


भोजन का उद्देश्य स्वास्थ्य और साधना होना चाहिए 
                                       - समणी डॉ.  सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि शरीर ही धर्म का मुख्य साधन है। इसलिए शरीर की संभाल करना आवश्यक है। जिस प्रकार साधु को साधना के लिए शरीर आवश्यक है, उसी प्रकार गृहस्थ को भी धर्म साधना के लिए शरीर मुख्यतम साधन है। इसी विषय पर चिंतन प्रस्तुत करते हुए आचार्य हेमचंद्र के मार्गानुसारी के पैंतीस बोलों में से 16 वां एवम् 17 वां सूत्र पर डॉ. समणी ने  विवेचन किया। व्यक्ति तीन उद्देश्य में से किसी भी तरह के उद्देश्य से भोजन करता हुआ जान पड़ता है। कुछ लोग स्वाद के लिए भोजन करते हैं तो कुछ लोग स्वास्थ्य के लिए और बहुत कम लोग जो साधना के लिए भोजन करते हैं। जीवन की यात्रा को संपन्न करने के लिए भोजन करें न कि स्वाद की लोलुपता के लिए होना चाहिए। स्वाद के लिए स्वास्थ्य को भी दांव पर लगा देते हैं लोग। डॉ. समणी ने कहा कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भोजन करने वाला पहले भोजन की आवश्यकता अनुभव करता है, पेट में भूख है या नहीं? इस पर विचार करके फिर भोजन सामग्री का चयन करता है। भोजन कब, कैसे, कहां, क्यों खाना इस बारे में विस्तृत जानकारी दी गई। 16 वें बोल में कहा गया कि अजीर्ण में भोजन का त्याग करना चाहिए। और 17 वें बोल में कहा कि भूख लगने पर,  समय पर संतुलित एवं सात्विक भोजन करना चाहिए। आहार के अनेक प्रकार बताते हुए डॉ. समणी ने कहा कि साधक के लिए हमेशा सात्विक भोजन करना श्रेयस्कर होता है। क्यों कि साधना के उद्देश्य से  भोजन करने पर आसक्ति दूर रहती है। साधना तभी हो सकती है जब स्वास्थ्य ठीक हो, विचार और बुद्धि अच्छी हो, मन पवित्र हो। भोजन अगर अपवित्र, तामसिक होगा तो बुद्धि और विचारों का पवित्र एवम् सात्विक होना मुश्किल है।

13.08.2019


धर्मशास्त्र के श्रवण से हृदय में सद्विचारों की सौरभ महकती रहती है - समणी डॉ.  सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि गृहस्थ सुश्रुषा, श्रवण आदि आठ प्रकार की बुद्धियों से युक्त है, किन्तु यदि निरंतर धर्म सुनने का अवसर न मिले तो वे बुद्धि भी बेकार पड़ी तलवार की तरह जंग खा जाती हैं। जैसे गाड़ी का चक्का चलते रहने पर ही साफ और तेजदार रहता है, वैसे ही बुद्धि भी निरंतर कार्यशील रहने पर ही तेजस्वी और प्रखर बनी रहती है। डॉ. समणी ने कहा कि कानों में पड़ने वाले अच्छे या बुरे शब्द, प्रिय या अप्रिय वचन सुने तो अवश्य ही जायेंगे, साधक शब्दों के सुनने का त्याग नहीं कर सकता, किन्तु उन शब्दों पर जगने वाले राग - द्वेष भावों को मन में न आने से, यही साधक का कर्तव्य है। सुनने का मन पर बहुत गहरा असर पड़ता है - इसे अनेक उदाहरणों द्वारा डॉ. समणी ने बताया।

12.08.2019


जैन अणुप्पेहा ध्यान योग साधना शिविर द्वारा बुद्धि का सर्वांगीण विकास संभव - समणी डॉ.  सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि सुनने की इच्छा होने पर व्यक्ति सुनता है, और सुनने की रीति तथा कला के साथ सुनता है। सुनकर इस बात पर विचार किया जाता है कि यदि वह ग्रहण करने योग्य है, उससे जीवन को लाभ होने वाला हो तो उसे ग्रहण करना चाहिए। कानों तक लाकर उसे हृदय तक पहुंचना चाहिए। मार्गानुसारी के पैंतीस बोलों में से चौदहवें बोल का विवेचन करते हुए डॉ. समणी ने कहा कि एक गृहस्थ को आठ प्रकार की बुद्धियों से युक्त होना चाहिए। बुद्धि के इन आठ भेदों में श्रोता के मन की सूक्ष्म से सूक्ष्म ग्रंथियों को खोलकर रख दिया जाता है। जब मन में सर्वप्रथम सुनने की इच्छा जागेगी, तो व्यक्ति सुनने को तत्पर होगा। फिर उस ग्रहण करेगा, स्मृति में सुरक्षित धारणा बनायेगा, उस पर विवेक पूर्वक विचार करेगा, तर्क वितर्क से उसके विभिन्न पहलुओं पर सोचेगा। उसकी गहराई तक पहुंचेगा और आखिर में इतने विचार मंथन के बाद जो तत्त्व रूप नवनीत प्राप्त होगा उसे दृढ़तापूर्वक स्वीकार करेगा।

11.08.2019


जयगच्छीय 11वें पट्टधर आचार्य सम्राट श्री शुभचंद्र महाराज साहेब का 81 वां जन्मोत्सव मनाया
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि मनुष्य का पालन तो माता की गोद में होता है, किन्तु विकास गुरु के चरणों में होता है। इस शरीर के भीतर छिपी चेतना को जगाने वाले गुरु है। जिस प्रकार पत्थर को प्रतिमा का रूप देने वाला कलाकार कहलाता है, फूल को सुंदर गुलदस्तों का आकार देने वाला मालाकार होता है, उसी प्रकार मनुष्य को मानवता का श्रृंगार देने वाला गुरु होता है। आचार्य की परिभाषा बताते हुए डॉ. समणी ने कहा कि जो शिष्य को आचार की शिक्षा देते हैं, संस्कार प्रदान करते हैं, शास्त्रों का ज्ञान देते हैं और उसकी बुद्धि का विकास करते हैं - उनका नाम है आचार्य। आचार्यों के स्वभाव, व्यवहार, क्षमा, समभाव, उपशम भाव आदि गुणों को आधार मानकर आचार्यों के चार भेद बताए गए। इनमें ज्ञान और चारित्र गुण की उत्कृष्टता को प्रकट किया है। ज्ञान और चारित्र की निर्मलता होने से क्रोध, कषाय, अहंकार, उत्तेजना आदि स्वतः ही शांत हो जाते हैं। जैसे कच्चा फल कड़वा और कठोर होता है किन्तु पकने पर मृदु हो जाता है, मधुर हो जाता है। वैसे ही ज्ञान जिनके हृदय में रम जाता है वे स्वभाव से ही शांत और वात्सल्य से पूर्ण होते हैं। आचार्य सम्राट पूज्य श्री शुभचंद्र महाराज साहेब का 81 वां जन्मोत्सव तप त्याग एवं पांच सामायिक की पचरंगी द्वारा मनाया गया। उत्कृष्ट व्यक्तित्व के धनी परम शांत स्वभावी करुणाशील थे। बालक, वृद्ध, भक्त, अशक्त, विनीत, अविनीत किसी के प्रति भी कभी कठोरता या उग्रता का भाव जिनके भीतर नहीं होता था और जन जन के लिए एक बड़ी सीख दे गए की संघ में संप होने से संघ तरक्की कर सकता है। इस दृष्टिकोण से जहां भी जाते समन्वय की बात ही करते।

10.08.2019

सुनने की जिज्ञासा समझदारी एवं चतुरता प्राप्त करने का सबसे बड़ा "गुर" है - डॉ.  सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि संसार में तीन प्रकार के बल होते हैं - बुद्धि बल, शरीर बल और धन बल। इनमें से बुध्दिबल सबसे उत्तम माना जाता है। शरीर बल पशुता का प्रतीक है, जबकि बुध्दिबल मनुष्यता का। बुद्धि ही मनुष्य की श्रेष्ठता का कारण है। आचार्य हेमचंद्र द्वारा रचित योगशास्त्र के अन्तर्गत मार्गानुसारी पैंतीस बोलों के एक - एक बोल का विवेचन करते हुए डॉ. समणी सुयशनिधि जी ने 14 वाँ बोल बताते हुए कहा कि  सामान्यतः बुद्धि दो प्रकार की होती हैं - एक जन्मजात और दूसरा प्रयत्न जन्य। जन्मजात बुद्धि मनुष्य में सहज होती है, किन्तु प्रयत्न से उसका विकास और विस्तार किया जा सकता है। अनुभव से उसको बढ़ाया जा सकता है। आचार्य हेमचंद्र ने आठ भेद बुद्धि के बताए जिनको समझाते हुए डॉ. समणी ने कहा कि सबसे प्रथम है - सुश्रुषा! अर्थात् सुनने की प्रबल इच्छा, जिज्ञासा। ज्ञान के चार साधन हैं - देखना, सुनना, पढ़ना और अनुभव करना। मनुष्य सबसे पहले देखकर ज्ञान प्राप्त करता है। बालक दूसरों को देखकर चलना, खाना, बोलना आदि क्रियाओं को सीखता है। थोड़ा विकास होने पर सुन - सुन कर ज्ञान प्राप्त करने लगता है। जैसे शब्द सुनता है, उनका अर्थ न जानता हुआ भी बोलने लगता है। अभिभावकों को मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण उनके समक्ष रखते हुए डॉ. समणी ने कहा कि बच्चों का मन स्वच्छ एवं शुद्ध होता है। परन्तु घरवाले शुरुआत में बच्चों के तुतलाते बोलने का मज़ा लेने के लिए उनसे ऐसे शब्द बुलवाते हैं जो अनुकरणीय नहीं होते और बालक गलत शब्दों को सीखकर आगे संस्कार हीन बन जाते हैं। अभिभावक बुद्धि बल का अगर सही उपयोग करें तो अपने बच्चों को कम उम्र में ही सफलता की ऊंचाइयों तक ले जा सकते हैं। मनुष्य भलाई और बुराई का निर्णय सुनकर कर सकता है। सुनकर वह पुण्य का भी ज्ञान प्राप्त कर सकता है और पाप का भी। क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए - इनका विवेक सुनने से ही आ सकता है। डॉ. समणी ने श्रावक के भेद बताते हुए कहा कि श्रावक को शीशे के समान बनना चाहिए जो वक्ता के विचारों का सही प्रतिबिंब ग्रहण करता है। तीखे कांटें के समान दूसरों के लिए पीडाकरी कभी भी नहीं बनना चाहिए।

08.08.2019


निंदनीय आचरण का त्याग करना ही धार्मिक आदर्श है -  समणी डॉ.  सुयशनिधि 
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि सद्गृहस्थ ऐसा आचरण एवं प्रवृत्ति न करें जिससे समाज में निंदा एवं घृणा होती हो। जिस कर्म के करने से व्यक्ति की प्रतिष्ठा गिरती हो, जिस आचरण से लोग घृणा करते हो, निंदा एवं नफरत करते हो - ऐसे आचरण से व्यक्ति समाज में निंदनीय कहलाता है। डॉ. समणी ने कहा कि हर एक व्यक्ति प्रशंसा और सम्मान की इच्छा रखता है। वह तभी संभव है जब व्यक्ति का आचरण प्रशंसनीय हो और सुंदर व्यवहार हो। शास्त्र हमें विवेक एवं ज्ञान की आंख दे सकते हैं पर स्वयं को ही जीवन में विवेक करना होगा कि किस कर्म के करने से संसार में बुराई होती है और किस कर्म के करने से भलाई। साधक को चिंतन करना चाहिए कि कौन सी वृत्तियां उन्हें रावण के सिंहासन पर बिठाती है और राक्षस कोटि में के जाती है। और कौन सी वृत्तियां राम के रूप में उपस्थित करती है एवं देवता की श्रेणी में बिठाती है। अनेक उदाहरण एवं कथानक के माध्यम से अलग अलग वृत्तियों को समझाते हुए डॉ. समणी ने कहा कि व्यक्ति निंदित आचरण का त्याग करते हुए कुत्सित कर्म से निवृत्त होकर समाज, धर्म और राष्ट्र की कीर्ति बनाए रखें। यही उसका धार्मिक आदर्श है, नैतिक कर्तव्य है और राष्ट्रीय धर्म है।

07.08.2019


 व्यक्ति यदि आदर्श का पालन करेगा, तो राष्ट्र भी अपने आदर्श पर स्थिर रह सकेगा - समणी डॉ.  सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि मार्गानुसारी के पैंतीस बोलों में से दसवां बोल निवास स्थान के बारे में प्रकाश डालता है। एक गृहस्थ को उपद्रवग्रस्त देश एवं नगर का त्याग कर निरूपद्रव एवं शांत स्थान में निवास करना चाहिए। आज ऐसा आदर्श जनपद वाला देश राष्ट्र नहीं है। कोई मुहल्ला भी ऐसा नहीं जिसमें चोर न हो, शराबी न हो, कोई मूर्ख न हो, कृपण - कंजूस और लोभी न हो। शायद एक घर भी पूरा ऐसा होना बहुत दुष्कर है जहां आदर्शों का अनुसरण किया जाता हो। डॉ. समणी ने कहा कि जब स्वयं ही अपने आदर्श से व्यक्ति गिर रहा है, तो पूरे राष्ट्र की फिर क्या बात है? व्यक्ति से परिवार बनता है, परिवार से समाज और समाज से राष्ट्र। व्यक्ति यदि आदर्श का पालन करेगा, तो राष्ट्र भी अपने आदर्श पर स्थिर रह सकेगा। आज के युग में न तो कहीं उपद्रव रहित सुरक्षित स्थान ही है और न शुद्ध जल वायु। इसी कारण जीवन में अशांति, बेचैनी और बीमारियां घर कर रही हैं। ज़िन्दगी एक भार कि तरह मनुष्य के सिर का बोझ बन रही है।
डॉ. समणी ने कहा कि अगर हर एक व्यक्ति अपनी अपनी जीवनचर्या को नियमित करे तो वह अपने जीवन एवं आचार विचार को अधिक से अधिक सुरक्षित और शुद्ध रख सके। इसकी साधना के लिए चार बातें महत्वपूर्ण है - शुद्ध सात्विक भोजन, स्वच्छ जल, स्वच्छ शुद्ध वायु और शुद्ध विचार। जहां जीवन में ये चार चीजें सुलभ हों, वहीं पर सद्गृहस्थ को रहना चाहिए। वहीं वास्तव में उपद्रव रहित क्षेत्र है, और वह चाहे गांव हो या शहर - वहां रहने से गृहस्थ अपना जीवन सुख, शांति और निर्भयता के साथ बिता सकता है।

06.08.2019


सद्गृहस्थ को चाहिए माता पिता के उपकारों को स्वीकार कर सेवा करें -  समणी डॉ.  सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि एक सद्गृहस्थ अपने माता  - पिता की भक्ति और सेवा करता है। उनका आदर और सत्कार करता है। माता पिता की इच्छाओं का ध्यान रखकर उनकी आज्ञाओं का पालन करने वाला होता है।  मार्गानुसारी के पैंतीस बोलों में से 9वां बोल "माता - पित्रोश्च पूजक:" का विवेचन करते हुए डॉ. समणी ने कहा कि जीवन में जो संस्कार, जो शिक्षा और बौध्दिक विकास के पुष्प खिले हुए हैं, उसका मूल अंकुर है - मातृशक्ति। मानव रूपी इस सुंदर सुशिक्षित संस्कारी फूल का निर्माण करने वाला माली - माता है। माता संतान में संस्कारों के बीज डालती है, अंकुरित करती है, पिता उनका संरक्षण और परिवर्धन करता है। माता पिता अनेक कष्टों को सहकर बच्चों का पालन पोषण करते हैं। संतान का भी दायित्व उनके प्रति कुछ कर्तव्यों का पालन करना अति आवश्यक है। वह इस प्रकार है - सर्व प्रथम माता पिता को सेवा द्वारा सदा प्रसन्न रखें, माता पिता के यश - गौरव की वृद्धि करें, और उनके आध्यात्मिक जीवन की उन्नति में सहयोग देवें। डॉ. समणी ने कहा कि जब तक माता पिता के प्रति मन में श्रद्धा नहीं होगी, आदर नहीं होगा तब तक उनके उपकार का मूल्यांकन करने की दृष्टि भी जीवन में नहीं जागती है। इसलिए हर एक गृहस्थ को अपने माता पिता की सेवा करते हुए जीवन में सुख एवं आनन्द को स्थापित करना चाहिए। जिससे माता पिताओं को वृद्धाश्रम में जाने की जरूरत ही न पड़ें। परिवार ही अगर सेवा और देखबाल करें तो वृद्धावस्था में तनाव, चिंता, रोग आदि से मुक्त होना आसान बन जाता है।

05.08.2019


अच्छी संगत से ज्ञान की वृद्धि के साथ मन में पवित्रता और दृढ़ता के संस्कार जगते है - समणी डॉ.  सुयशनिधि 
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि सद्गृहस्थ का आठवां आदर्श बताते हुए कहा कि सदाचारी - उत्तम आचार विचार वाले पुरुषों की, व्यक्तियों की संगति करनी चाहिए। अच्छे व्यक्ति की संगत चंदन जैसी है। चंदन हाथ में रहती है तब तक सुगंध देती है और हाथ से छोड देने के बाद भी महक तो रहती ही है। दुर्जनों की संगत कोयले के समान है। कोयले को हाथ में रखने पर भी तकलीफ और छोड़ देने के बाद भी हाथ काला। दुर्जनों के पास में बैठो तब तक तो मन बुरे विचारों और दुष्ट संकल्पों में दौड़ता ही है किन्तु बाद में भी उन्हीं दुर्विचारों एवं दुष्ट संकल्पों से घिरा रहता है। यदि जीवन में सद्विचारों की सुगंध चाहिए, सद्गुणों की महक चाहिए तो चंदन जैसे सत्पुरुषों की संगति करनी होगी। अन्यथा कोयले के साथी तो अपने आप मिल ही जाएंगे। डॉ. समणी ने सदाचारी का परिचय दर्शाते हुए कहा कि जिसमें सज्जनता हो, सहिष्णुता हो, दूसरों की भलाई करने की भावना हो, कृतज्ञता हो, उदारता हो, अपने अवगुणों की निन्दा और दूसरों के गुणों की प्रशंसा करते हो, कष्ट में धैर्य, सुख में समता हो - इस प्रकार के गुण जिनमें हो, वे सत्पुरुष,  सज्जन या सदाचारी पुरुष कहलाते हैं। अपने से श्रेष्ठ गुण वालों की संगत करेंगे तो मनुष्य जीवन में विकास प्राप्त कर सकता है। अपने से हीन व्यक्ति की संगत करे तो स्वयं का जीवन भी हीन हो जाता है। आज कल के युवा पीढ़ी को सोशल मीडिया पर हो रहे मित्रता और उससे जुड़े दुष्परिणामों को समझाते हुए डॉ. समणी ने कहा कि ज्ञान, विनय, विवेक और संस्कारों से युक्त जनों की संगत से जीवन सुखद हो सकता है। अतः दुर्जनों का त्याग कर सही संगत रखने की प्रेरणा दी।

04.08.2019


घर की एवं बाहरी वातावरण की स्वच्छता के साथ साथ आंतरिक स्वच्छता से स्वच्छ समाज का निर्माण संभव है 
                                         - समणी डॉ.  सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने मार्गानुसारी के पैंतीस बोलों में से 7वें बोल के तहत् आदर्श घर के बारे में विस्तृत वर्णन करते हुए कहा कि यह जीव बार बार घर बदलता है। एक घर से दूसरे घर करते करते न जाने कितने घर बदलते हुए सामान ढोते चले जाते हैं। जब तक कर्म नहीं कटेंगे तब तक घर बदलने पड़ेंगे। और आगे जाकर जब सारे कर्म कट जायेंगे वो जीव मुक्तालय में पहुंच जाएगा। डॉ. समणी ने धर्मानुरागी बंधुओं के लिए एक चिंतन दिया - जिस आधार पर गृहस्थ अर्थात् "गृह" में रहने वाला कहा जाता है, वह "गृह" कैसा होना चाहिए? इस पर गहन चिंतन बहुत जरूरी है। घर का अर्थ है  - घेरे में बंधे हुए रहना, बड़े बुजुर्ग के अंकुश के घेरे में बंधे हुए रहना जहां अपने आप को सुरक्षित महसूस किया जाता है। परिवार की, धन आदि की सुरक्षा की दृष्टि से घर का निर्माण किया जाता है। नीति में बताया कि केवल ईंट पत्थरों की दीवारें ही घर नहीं, घर में गृहणी होने से ही घर कहलाता है। डॉ. समणी ने कहा कि 7वें बोल का विवेचन करते हुए कहा कि घर को सुरक्षित एवं व्यवस्थित रखने के लिए अपना आवास, अपना घर बस्ती से न अधिक दूर एवं न एकदम भीड़भाड़ में घनीबस्ती में, अंधेरी गंदी गलियों में भी नहीं होना चाहिए। दूसरी बात यह है कि  शुद्ध एवं खुली हवा में घर हो ताकि वातावरण से ऊर्जा का संचार होता रहे। जीवन धारण के लिए तीन वस्तु मुख्य है - अन्न, जल और वायु। डॉ. समणी ने कहा कि शुद्ध हवा में प्राणों को प्रफुल्लित करने की शक्ति है तो अशुद्ध हवा प्राणों की स्फूर्ति एवं शक्ति नष्ट कर देती है। घर के संबंध में तीसरी बात यह है कि घर आम रास्ते पर - अर्थात् जिस रास्ते पर दिन रात आवागमन होता हो, ऐसे रास्ते पर भी रहने का मकान नहीं होना चाहिए जिससे परिवार की सुरक्षा, सुख शांति रह सके। घर की स्वच्छता पर बल देते हुए कहा कि तन और भवन की स्वच्छता के साथ साथ आंतरिक स्वच्छता का भी ध्यान रखना नितांत आवश्यक है।

03.08.2019
 निंदक अपने ही दुष्कृत्यों से तड़पता है
 - समणी डॉ.  सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि संसार में दो जीव सबसे तेज काटने वाले हैं - एक है निंदक और दूसरा है चापलूस। निंदक पीछे से काटता है, जिसके काटने से मनुष्य की आत्मा तिलमिला उठती है। चापलूस सामने से काटता है, जिसके काटने से मनुष्य की आत्मा अपना होश हवास खो देती है। तीर्थंकर महावीर स्वामी का उपदेश है कि न तो किसी को तुच्छ बताओ, न किसी की निन्दा और बुराई करो और न किसी की झूठी प्रशंसा के पुल बांधो। इन दोनों बुराइयों से बचते रहो। मार्गानुसारी के पैतीस बोलों में से छट्ठे बोल का विवेचन करते हुए डॉ. समणी ने कहा कि सद्गृहस्थ को किसी की भी निंदा नहीं करनी चाहिए और खास कर राजा, मंत्री और अधिकारी आदि एवं धर्म गुरुओं आदि की तो कभी भी निंदा - अवर्णवाद नहीं करना चाहिए। निंदा का संबंध सच्ची या झूठी बात से उतना नहीं जितना भाव से है, दृष्टि से है। अगर व्यक्ति की दृष्टि बुराई पर टिकी है, दोष खोजती है और अमुक व्यक्ति को बदनाम या अपमानित तथा नीचा दिखाने की भावना है तो सच्ची बात भी निंदा कहीं जाती है।
डॉ. समणी ने जीवन में दो प्रकार की दृष्टि को बताते हुए कहा कि पहली दृष्टि है गुण दृष्टि जो सामने वाले के सौ दुर्गुणों में भी किसी एक सद्गुण को देख कर उसकी प्रशंसा कर देते हैं। यह एक ऐसी वृत्ति है जो बुराई में भी भलाई खोजती रहती है, दोषों में भी गुण टटोलती रहती है। वहीं दूसरे प्रकार की दृष्टि जो दोष दृष्टि है जो गुणों में भी दोष देखता है। डॉ. समणी ने कहा कि जीवन विकास और वैज्ञानिक प्रगति के लिए दो बातें महत्वपूर्ण होती है - प्रयत्न करते रहने का संकल्प और भूलों को सुधारते रहने की आदत। भूलों का निरीक्षण और उन्हें सुधारने की आदत ही नए नए आविष्कारों को जन्म देती हैं। आत्म विकास के लिए दो बातें छोड़ने की प्रेरणा दी और वो है पर निंदा और आत्म प्रशंसा। और दो बातें अपनाने योग्य है - आत्म निंदा और पर गुण प्रशंसा। आत्म निंदा का मतलब आत्म दर्शन होना है। स्वयं की दुर्बलता को मिटाए बिना जीवन सबल और सक्षम कैसे बनेगा? इसी लिए आत्म दर्शन भी एक प्रकार का शीशा है जिसमें स्वयं की कमियां, कमजोरियां और खामियां देखकर संकल्प करके उन्हें दूर हटाने का प्रयास करते रहना चाहिए। आत्म निंदा से साधक पश्चाताप को पाता है जिससे शुद्ध होते हुए दोषों से मुक्त होता हुआ वैराग्य को प्राप्त कर सकता है।


01.08.2019
पाप करते समय उसके दुष्परिणामों पर विचार करें एवं त्याग करें - समणी डॉ.  सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि मानव जीवन की समस्त क्रियाओं के मूल में दो तत्वों की प्रधानता है - एक पुण्य और दूसरा पाप। पुण्य शुभ कर्म है - जीवन के सब प्रकार के सुख, यश प्रतिष्ठा, रूप, यौवन, वैभव, परिवार आदि पुण्य कर्म के फल हैं। पाप अशुभ कर्म है - समस्त दु:खों का कारण है। रोग, दरिद्रता, बदनामी, अंगोपांग आदि की हीनता आदि पाप कर्म के फल हैं। डॉ. समणी ने कहा कि संसार में सभी मनुष्य पुण्य चाहते हैं, पुण्य के फल की आकांक्षा रखते हैं। पाप का फल कोई नहीं चाहते, पाप के फल से सभी घबराते हैं। किन्तु मानव जीवन की विडंबना यह है कि पुण्य का फल चाहने वाले पुण्य नहीं करते हैं और पाप का फल नहीं चाहते हुए भी पाप करते जा रहे हैं। पाप शब्द की व्याख्या करते हुए डॉ. समणी ने कहा कि जो आत्मा को पतन की ओर ले जाए, जो पुण्य का भलाई का शोषण करें, शुभ कर्म रूपी बगीचे को सुखा दे, जीव रूपी वस्त्र को जो मलिन कर दे, वह पाप कहलाता है। लोगों की वृत्ति दुर्योधनी - वृत्ति बन रही है। व्यक्ति के मन में होता है - मैं धर्म को जनता हूं, पर उसमें प्रवृत्ति नहीं कर पा रहा हूं। और अधर्म को भी जनता हूं पर उससे दूर नहीं हट पा रहा हूं। आचार्यों का कथन है कि यदि दुःख से डरते हैं, गरीबी, बीमारी और बदनामी से डरते हैं तो इनसे बचने के लिए पाप से डरना चाहिए। इन सब दु:खों का मूल पाप है, अशुभ कर्म है, इसलिए साधक को "पाप भीरू" होना चाहिए। आज जो चारों ओर अन्याय, भ्रष्टाचार और पाप की होली जल रही है, उसका मुख्य कारण है कि लोगों में पाप का भय नहीं रहा, अन्याय की घृणा समाप्त हो गई है, सबके मन में पैसा बसा है। हर एक व्यक्ति को चाहिए कि पाप करते समय मन में यह चिंतन करें - पाप के आचरण से मन की वृत्तियां कलुषित होगी, आत्मा में अशांति होगी, कर्म बंधन होगा, आत्मा स्वभाव से गिरकर विभाव में चली जाएगी पतन होगा और जन्म मरण की श्रृंखला से संसार में परिभ्रमण होगा जो अनंत दुखदाई है।

02.08.2019


संस्कृति का संरक्षण, संवर्धन और संचालन करना नितांत आवश्यक है - समणी डॉ.  सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि गृहस्थ के जीवन में जितना आध्यात्मिक गौरव है, उतना ही राष्ट्रीय गौरव भी होना चाहिए। गृहस्थ जीवन राष्ट्र और समाज से संबंधित होता है। इसलिए उसे अपने देश और राष्ट्र की संस्कृति, आचार - विचार का भी यथा विधि पालन करना चाहिए। मार्गानुसारी के 5वें बोल के अन्तर्गत अपने देश के प्रसिद्ध आचार के पालन हेतु नियम एवं उपदेश देते हुए डॉ. समणी ने कहा कि पूर्वजों के हजारों वर्षों के ज्ञान, विज्ञान, अनुभव और चिंतन के फल स्वरूप जो आचार  - विचार की महान् परंपरा प्राप्त है उसका संरक्षण, संवर्धन एवं संचालन की जिम्मेदारी हर एक नागरिक की है, हर एक गृहस्थ की है। जिस व्यक्ति में देश के प्रति प्रेम होता है, राष्ट्र के प्रति आदर एवं सम्मान की भावना होती है, अपने पूर्वजों के प्रति गौरव की दृष्टि होती है, वह अपने देशाचार का उल्लघंन नहीं करता। जहां कहीं भी जाएगा, जहां कहीं भी रहेगा, वह अपनी संस्कृति की छाप रखेगा। देश का गौरव ऊंचा रखेगा और अपने आचार - नियमों का निर्भय होकर पालन करेगा।

31.7.2019


धार्मिक आदर्शों पर चलने से सामाजिक व्यवस्था भी सुंदर हो सकती है - समणी डॉ. सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि गृहस्थ जीवन को सुखी एवं सफल बनाने के लिए चार पुरूषार्थ बताए गए। सर्व प्रथम धर्म पुरुषार्थ  जिस पर जीवन मंदिर की नींव टिकी है। और अंतिम है मोक्ष पुरुषार्थ जिसे जीवन मंदिर का शिखर कहा जा सकता है। नींव और शिखर के बीच मंदिर का जो भाग है, वह गृहस्थ जीवन का मध्य रूप - अर्थ एवं काममय है। गृहस्थ जीवन में अर्थ एवं काम का अनियंत्रित प्रसार न हो, इसलिए धर्म के बंधन से बांधा गया और मोक्ष का लक्ष्य समक्ष रखा गया है। मार्गानुसारी के 35 बोलों में गृहस्थ जीवन में अर्थ शौच यानी न्याय से धन कमाने के विषय पर प्रथम बोल में बताया गया। तीसरे बोल में उसके "काम संयम" विषय पर विचार करने की प्रेरणा दी जाती है। डॉ. समणी ने तीसरा बोल "समान कुल शील एवं अन्य गोत्रिय के साथ विवाह संबंध"  का विवेचन करते हुए कहा कि विवाह शब्द का अर्थ है विशिष्टता के साथ वहन करना। अनेक पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख करते हुए बताया कि स्त्री पुरुष का जीवन भर के लिए स्नेह एवं सहयोग के सूत्र में बंध जाना विवाह है। उस बंधन में केवल काम भावना नहीं होती। वह किसी उच्च संकल्प और उच्च ध्येय से युक्त होता है। धर्म में अनुरक्त होकर साथ देते हुए सुख दुःख में भी समान रूप से साथ देने के कारण पत्नी अर्धांगिनी कहलाती है। जैन शास्त्रों में धर्म सहायिका कहा गया। डॉ. समणी ने कहा कि सुखी जीवन की आधारभूत दो बातें है - परस्पर का विश्वास और समानता की भावना। कुल की समानता, शील यानी स्वभाव की समानता के साथ साथ धार्मिक समानता का ध्यान रखना सुखी एवं आनंदमय जीवन के लिए अति आवश्यक है। दहेज प्रथा, धन के लालच में हो रहे अन्याय को त्याग करने की प्रेरणा दी गई। धार्मिक आदर्शों को समझकर अपने जीवन में उतारने लगे तो गृहस्थ आगे बढ़ते हुए सद्गृहस्थ बन जाते हैं। धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ ही सर्व श्रेष्ठ है किन्तु हर कोई गृहस्थ का, संसार का त्याग ना कर पाने के कारण आचार्य ने सद्गृहस्थ बनने के लिए सूत्र दिया।

30.7.2019


आत्म शुद्धि के लिए राग द्वेष से बचना जरूरी
                                - समणी डॉ. सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि जब तक महान पाप और दुशकाट्य बंधन नहीं समझा जाता तब तक आत्म कल्याण कदापि संभव नहीं। बंधन दो प्रकार के है - राग बंधन और दोष बंधन। रागी को अवगुण न दिखने से बंधन है। और द्वेषी को गुण न दिखने से बंधन है। इसके अतिरिक्त ये दोनों रागी और द्वेषी क्रमशः अवगुण को गुण और गुण को अवगुण के रूप में देखने लगते हैं। राग द्वेष आत्मा के एक एक प्रदेश को जकड़ रखा है, बांध रखा है। आत्म प्रदेशों से एकाकर होकर भटकाने के काम करते हैं। इसलिए आत्म जागृति और सावधानी आवश्यक है। डॉ. समणी ने कहा कि राग द्वेष कर्म के मूल बीज है। जन्म मरण का मूल कारण है कर्म। और इसी के कारण संसार में जीव दुःख पाता है। जहां राग है वहां द्वेष अवश्य रहता है। राग का अभाव होगा, तो द्वेष का अस्तित्व भी नहीं रहेगा। इस लिए बंधन को बंधन समझकर राग द्वेष से दूर रहने की प्रेरणा दी। गुवाहाटी शहर में प्रथम बार ऐसा विशेष कार्यक्रम दोपहर 3 बजे से 4 बजे तक " रसोई की रचना से जीवन में समरसता" विषय पर जैन समणी डॉ. सुयशनिधि ने महिला मंडल की महिलाओं को सम्बोधित किया। जिस स्थान में रस का निर्माण होता है वह रसोई कहलाती है। रसोई घर में जो जो सावधानी रखने योग्य बातें है उन्हें बहुत ही प्रायोगिक दृष्टि से समझाया। यतना और विवेक सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बताया जिससे व्यक्ति आरंभ समारंभ की क्रियाओं में भी अपना बचाव कर सकते हैं। किन किन प्रकार के बर्तनों के प्रयोग से स्वास्थ्य हानि होती है और उससे कैसे बचा जा सकता है - इसका गहरा विवेचन डॉ. समणी ने किया। भोजन पवित्र होगा तो व्यक्ति का मन और शरीर भी पवित्र हो सकेगा।

29.7.2019
विवेक रूपी तीसरा नेत्र जीवन को ज्ञान प्रकाश से आलोकित करता है -  समणी डॉ. सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि जीवन में दो रास्ते हो सकते हैं - एक विकास का मार्ग और दूसरा विनाश का मार्ग। साधक ज्ञान और विवेक से जीवन का विकास, चिंतन का विकास कर सकता है। विवेक का अर्थ है अच्छे बुरे का भान कराने वाली दृष्टि। चाहे तप हो, ज्ञान अर्जन हो या दान, यदि विवेक नहीं तो धर्म भी अधर्म बन सकता है। कर्म तोड़ने वाली क्रिया भी विवेक नहीं तो कर्म बांधने वाली बन सकती है। डॉ. समणी ने कहा कि विवेक के अभाव में धर्म की प्राप्ति नहीं हो सकती, सम्यक्त्व यानी श्रद्धा भी सुदृढ़ नहीं होती। विवेक के 3 भेद - विचार विवेक, वाणी विवेक और आचार विवेक को अपनाने से साधक जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है। विचार अच्छे तो आचार भी उत्कृष्ट होंगे। आचरण में, कार्यों में, व्यवहार में चतुरता, कुशलता के साथ विवेक आवश्यक है। दिन की शुरुआत विवेक पूर्ण हो तो पूरा दिन सकारात्मक ऊर्जा को बढाते हुए व्यक्ति को आनंद प्रदान कर सकता है।

28.7.2019


समाज में शिष्टाचार की प्रतिष्ठा बढ़ाने की सम्यक दृष्टि जरूरी है 
                                       - समणी डॉ. सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने मार्गानुसारी के 35 बोलों में से द्वितीय बोल - शिष्टाचार प्रशंसक: पर विवेचन करते हुए कहा कि शिष्ट पुरुषों के आचार की प्रशंसा करनी चाहिए। व्याकरण की दृष्टि से शिष्ट का मतलब अनुशासित अर्थात् जो अनुशासन में चलने वाला है। जैसे पशु डंडे से हांका जाता है, वैसे ही मूर्ख मनुष्य भी भय व डंडे से चलाये जाते हैं। राजा के, स्वामी के, गुरु के और माता पिता के अनुशासन में चलना बाहर के अनुशासन है। परन्तु जो शिक्षित ज्ञानी और नीतिनिष्ट है, वे डंडे से नहीं चलाए जाते और भय से भी नहीं चलाए जाते। उन पर अनुशासन करने वाला कोई ओर तत्त्व है। और वह ज्ञान, विवेक और बुद्धि जैसे तत्त्व होते हैं। डॉ. समणी ने कहा कि जिसने ज्ञानियों की, वृद्ध पुरुषों की एवं गुरुओं की सेवा में रहकर विनय पूर्वक शिक्षा, सदाचार एवं अनुभव का लाभ प्राप्त किया है, वह अपने ज्ञान और अनुभव के बल पर अपना अनुशासन स्वयं करता है। स्वयं अपने कर्तव्य का निर्णय करता है। जिसने ज्ञान प्राप्त कर अनुभव का खजाना मिलने पर कर्तव्य भावना से उस पर आचरण भी किया है, वह शिष्ट पुरुष है। डॉ. समणी ने कहा कि केवल पोथी पढ़ने वाला पंडित नहीं होता। जिसके पास विवेक है, कर्तव्य का निर्णय करने की बुद्धि है और जिसका आचार ऊंचा होता है, ऐसे शिष्ट व्यक्ति समाज की शोभा होते हैं, धर्म का गौरव होते हैं। राष्ट्र का नैतिक बल ऊंचा उठता है।

27.7.2019


डॉ. श्री पदमचंद्र महाराज साहेब का 56 वां जन्म दिवस मनाया

जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि महा पुरुषों का जन्म दिन संघ समाज के लिए एक नई ऊर्जा लेकर आता है। गुणियों का गुण कीर्तन साधक को आत्म उत्थान की प्रेरणा देता है। जयगच्छीय जैन संत डॉ. मुनि श्री पदमचंद्र जी महाराज साहेब का 56 वां जन्म दिवस बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। डॉ. समणी ने कहा कि यथा नाम तथा गुण के अनुरूप पदमचंद्र जी महाराज साहेब का जीवन था। कृतित्व सुंदर, जनहितकारी, आत्म बोधक है तो व्यक्तित्व सुविशाल एवं बहु आयामी है। प्रवचन शैली इतनी सरस और सरल है कि हर उम्र का साधक तत्त्व ज्ञान को भली भांति समझ जाता है। जीवन के प्रारम्भ से ही आत्म विश्वास और अत्यंत लगनशील होने के कारण सम्यक पुरुषार्थ के धनी हुए। जन जन के आध्यात्मिक विकास, युवा पीढ़ी में धर्म संस्कारों का बीजारोपण के लिए गृहस्थ जीवन से ही अथक प्रयास करते रहे है। गुरुदेव का गुण गान करते हुए डॉ. समणी ने कहा कि ज्ञान को जीवन व्यवहार में संयुक्त करने के लिए डॉ. मुनि श्री ने युवा शक्ति को जागृत किया। नेतृत्व शक्ति के विकास के साथ साथ धार्मिक शिक्षण शिविरों के माध्यम से आध्यात्मिक विकास भी प्राप्त किया। चाहे ज्ञान ध्यान हो या स्वस्थ समाज की परिकल्पना हो, उसे सार्थक बनाने के लिए अणुप्पेहा ध्यान स्वयं द्वारा प्रणीत साधना पद्धति से जन जन को जागृत किया। शिविरों के माध्यम से हजारों युवाओं को श्रावक धर्म को भी दृढ़ता से पालन करने की विधि साधना बताते हैं। पिछले 17 वर्षों में लगभग 50000 से भी अधिक लोगों ने लाभ उठाया है। समाज के लिए एक क्रांतिकारी कदम डॉ. मुनि श्री द्वारा लिया गया - एस. एस. जैन समणी मार्ग प्रारम्भ करने से देश विदेशों में अहिंसा प्रचार एवं धर्म प्रभावना करने का क्रम शुरू हुआ।

26.7.2019


मित्र की सही शिक्षा भी अनेकों बार जीवन में नया रंग लाती है 
                                               - समणी डॉ. सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि मार्गानुसारी के 35 बोलों में से प्रथम बोल के अन्तर्गत अन्याय के तीसरे कारण मित्र द्रोह, स्वामी द्रोह का दुष्प्रभाव विस्तार पूर्वक समझाया। मित्र वहीं जो एक दूसरे पर विश्वास करे, एक दूसरे को अपना हृदय सौंप दें। व्यक्ति मित्र की ओर से संपूर्ण निर्भय और बेपरवाह रहता है। सोचता है मित्र की ओर से मुझे कभी कोई खतरा होने वाला नहीं है। हमेशा भला ही करेगा। इस विश्वास की परिस्थिति में कोई धोखा दे दे तो भयंकर चोट लगती है। डॉ. समणी ने आज कल के सोशियल मीडिया द्वारा होने वाली मित्रता और उससे ज्यादातर होने वाले अनहोनियों को नजर अंदाज न करते हुए जीवन को संतुलित एवं निर्लिप्त बनाने की प्रेरणा दी। अति विश्वास न करते हुए मात्र विश्वास के साथ सावधानी बरतनी चाहिए। जब तक साधक मोह निद्रा में सोया हुआ है, तब तक पौदगलिक पदार्थ में सुख मानता है। डॉ. समणी ने अनेक रूपक एवं कथा प्रसंग द्वारा मित्रता के महत्व के साथ साथ आज के परिपेक्ष में किन किन हित शिक्षाओं का अनुसरण करना चाहिए - यह तकनीक सिखाई। मित्र द्रोह के साथ स्वामी द्रोह का भी त्याग कर लेना चाहिए। स्वामी यानी मालिक, रक्षा करने वाले, आजीविका देने वाले। जिनके यहां रहकर व्यापारिक बुद्धि पाई, आजीविका का साधन मिला, अनुभव और प्रतिष्ठा पाई, उनके प्रति द्रोह करना निकृष्ट कर्म है। स्वामी द्रोह में राष्ट्र द्रोह भी आ जाता है। और इसी द्रोह से जीवन में सदा चिंता और भय बना रहता है।

25.7.2019
गृहस्थ धर्म की नींव न्याय नीति पर टिकी है
                                            - समणी डॉ. सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि मार्गानुसारी के 35 बोलों में से प्रथम बोल का विवेचन किया जो न्याय पूर्वक धन उपार्जन करते हुए अपनी आजीविका चलाने की प्रेरणा देता है। अन्याय के कारणों को जानने का प्रयास करने से जीवन में सुख शांति प्राप्त हो सकती है। अन्याय के अन्तर्गत तीन बातें होती है - असत्य का आचरण करना, विश्वासघात करना या धोखा देना और तीसरा है मित्र एवं स्वामी का द्रोह करना। ये तीनों अन्याय कहलाते हैं। अन्याय असत्य से ही प्रारम्भ होता है। चार कारणों से जीव असत्य का प्रयोग करते हैं - क्रोध के वश, लोभ के वश, भय के वश और हास्य के वश। क्रोध में व्यक्ति अंधे के समान हो जाता है। हित - अहित, भला - बुरा, न्याय - अन्याय का कोई भान नहीं रहता है। क्रोध उतरने के बाद मात्र पश्चाताप रह जाता है। भूतकाल में डूबे रहने के कारण आत्मा का पतन कर लेता है। डॉ. समणी ने कहा कि व्यक्ति भय के कारण असत्य बोल देता है। अपनी बुराई को छिपाने के लिए, अन्याय को दबाने के लिए असत्य का प्रयोग करते हैं। क्रोध के आँख पीछे होती है, भय के आगे होती है और लोभ के आंख होती ही नहीं। डॉ. समणी ने विस्तार से समझाते हुए कहा कि सत्य में साहस होता है, स्पष्टता नजर आती है और स्वीकार भाव रहता है। इसके विपरीत असत्य में कायरता होती है, छिपाव होता है और अस्वीकार भाव रहता है। अन्याय का दूसरा भेद है विश्वासघात। समय ऐसा दिखाई पड़ता है जहां एक ठग दूसरे ठग को ठग रहा है। एक दूसरे पर आक्रमण कर रहे हैं। डॉ. समणी ने कहा कि जैसी ध्वनि है, वैसी ही तो प्रतिध्वनि होगी। ठीक उसी प्रकार हर एक व्यक्ति को चिंतन मनन करना चाहिए कि अगर किसी को धोखा देते हैं तो एक दिन पुनः स्वयं के साथ धोखा हो सकता है। कर्म चक्र से आज तक कोई बच नहीं पाया है। इसलिए साधक को चाहिए कि वह अन्याय अनीति का त्याग कर न्याय मार्ग पर चलें।

24.7.2019
आचार्य श्री जीतमल जी महाराज साहेब का 110वां जन्म दिवस मनाया

जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि आचार्य श्री जीतमल जी महाराज साहेब के 110 वें जन्म दिवस के अवसर पर हर एक साधक को उनके जीवन आदर्शों को समझकर अपने आप को बदलना चाहिए ताकि आत्मोन्नति हो सके। जय संघ के 9वें पट्टधर हुए आचार्य श्री जीतमल जी महाराज साहेब। उनका जीवन भी एक सागर है। ज्ञान का, दर्शन का और चारित्र का अक्षय कोष था। उनका जीवन त्याग, तपस्या, सेवा, संयम, सरलता, मृदुता एवं सदाचरण का जीता जागता ज्वलंत उदाहरण है। उनका सम्पूर्ण जीवन जिनशासन के लिए समर्पित है। आचार्य श्री जीतमल जी महाराज साहेब  के जन्म, वैराग्य, दीक्षा और साधना को दर्शाते हुए डॉ. समणी ने कहा कि 8 वर्ष की आयु में अपनी माता भीखी बाई के साथ स्वामिवर्य श्री नथमल जी महाराज साहेब के सान्निध्य में संसार से विरक्ति पाना और साथ ही साथ जैन भागवती दीक्षा के लिए आज्ञा मांगना अपने आप में एक आदर्श है। खेलने कूदने की उम्र में आत्म उत्थान हेतु वो समझ आना वास्तव में पूर्व भवों की पुण्यवानी दिखाती है। बालक गणेश मल की आत्म रमणता ही दीक्षा के पूर्व की रात्रि में एक नया चिंतन देता है कि यह जीव अब तक जन्म - जन्मान्तरों से सोता ही तो आ रहा है, कितनी लंबी - गहरी नींद ले चुका है और नींद में कितने ही मायावी सपनों की भूलभूलैया में फंस चुका है। तभी एक संकल्प के साथ वह बालक अपने आप को बदलने की सोच रखता है। उन सपनों को भूल कर सपनों की उलझन को सुलझाने का विचार उन्हें यथार्थता तक ले जाता है। दीक्षा के बाद नामकरण हुआ "मुनि जीतमल जी" और जीत का मतलब है विजय, सिद्धि। यथा नाम तथा गुण के अनुरूप जब विक्रम संवत 2033 में रायपुर, मारवाड़ में चैत्र शुक्ल 13 के दिन आचार्य पद प्रदान किया गया, तब से उन्होंने जय संघ को एक नई चेतना प्रदान करते हुए जन जन के भीतर जागृत किया।

23.7.2019
सुख धन से नहीं, मन से मिलता है - समणी डॉ. सुयशनिधि


जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि मन की भूमिका जब सदभावों से मैत्री, प्रमोद, करुणा एवं मध्यस्थ भावनाओं से धर्म के योग्य बन जाती है तो उसमें व्रत, त्याग, नियम आदि के बीज बड़ी सरलता व शीघ्रता से अंकुरित हो सकते हैं। जीवन में व्यवस्था, उत्तरदायित्व एवं आनन्द होना चाहिए। आचार्य हेमचंद्र द्वारा रचित योगशास्त्र में एक गृहस्थ को सद्गृहस्थ बनने के लिए मार्गानुसरी के 35 बोल बताए गए जिनका विवेचन डॉ. समणी सुयशनिधि चातुर्मास काल में करेंगे। प्रवचन सभा को प्रथम बोल "न्याय संपन्न विभव:" के रहस्यों को उजागर करते हुए कहा कि न्यायपूर्वक आजीविका करना गृहस्थ का प्रथम धर्म है। गृहस्थ जीवन के लिए अर्थ और काम आवश्यक है परन्तु दोनों पर न्याय और नीति का नियंत्रण रहना चाहिए। नहीं तो आज के इस अर्थ प्रधान युग में लोग मानते हैं कि अर्थ के बिना सब व्यर्थ है। किन्तु धर्म से अनुबंधित अर्थ और काम जीवन विकास में सहायक बनते हैं। डॉ. समणी ने कहा कि धन के बिना यदि धर्म नहीं टिक सकता तो धर्म के बिना धन भी नहीं टिक सकता। नीतिपूर्वक अर्जित धन ही मनुष्य के आध्यात्मिक विकास में सहायक हो सकता है। बेईमानी से दूसरों का हक मारकर रिश्वत या चोर - बाजारी से, दूसरों को धोखा देकर या उनकी मजबूरी का अनुचित लाभ उठाकर धन कमाना पाप है, अधर्म का मूल है। ऐसा धन थोड़ी देर तो भले ही सुख देता है, पर बाद में दारुण दुःख देकर चला जाता है। अनीति का धन अपने साथ अनेक विपत्तियां लाता है। इसलिए अन्याय, अनीति से दूर रहना चाहिए। जीवन में सुख धन से नहीं, मन से मिलता है। मन में समता, नीति है तो निर्भयता रहेगी। निर्भयता शांति दिलाती है जिससे जीवन सुखी हो जाता है। 

22.7.2019
 समस्त संसार के प्रति मित्रता का संकल्प नितांत आवश्यक है 
                                                     - समणी डॉ. सुयशनिधि

जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि व्यवहार धर्म के बिना निश्चय धर्म की साधना हो ही नहीं सकती। बिना व्यवहार के धर्म का ही उच्छेद हो जाता है। धर्म के दो रूप बताए गए हैं जो कि निश्चय धर्म और व्यवहार धर्म से जाने जाते हैं। निश्चय के अनुसार आत्मा का स्वभाव धर्म है, स्वरूप परिणति धर्म है - वस्तु का यथार्थ स्वरूप धर्म कहलाता है। व्यवहार धर्म की अपेक्षा चार भावनाएं है जो इस प्रकार है - मैत्री भावना, प्रमोद भावना, करुणा भावना और माध्यस्थ भावना। डॉ. समणी ने कहा कि प्राणी मात्र पर मैत्री भाव, गुणाधिकों पर प्रमोद भाव, दुखितों पर करुणा भाव एवं अविनीत जनों पर माध्यस्थ भाव रखना चाहिए। जीवन में इन योग भावनाओं का विकास मनुष्य को मनुष्यता के श्रेष्ठतम शिखर पर पहुंचा देता है। आध्यात्मिक और व्यवहारिक जीवन में बहुत उपयोगी है। इन भावनाओं के अभाव के कारण ही द्वेष, ईर्ष्या, संघर्ष, कलह आदि जन्म ले लेते हैं। डॉ. समणी ने विस्तार से समझाते हुए कहा कि आज कल की समस्याएं मानवकृत है।  संसार की समस्याओं की जड़ है - राग द्वेष अहंकार और स्वार्थ बुद्धि। अगर ये सारी नकारात्मक अशुभ भावनाएं दूर हो जाए तो 90 प्रतिशत समस्याएं सुलझ जाए। प्रमोद भावना का विस्तृत वर्णन करते हुए डॉ. समणी ने कहा कि संसार में जहां कहीं भी कोई अच्छाई, कोई सद्गुण दिखाई दे, तो उन्हें देखकर प्रसन्न होना चाहिए। अच्छाई का स्वागत करना चाहिए। जो प्रशंसा करता है उसके जीवन में सद्गुण धीरे धीरे प्रवेश करते जाते हैं। और वह किसी भी स्थिति में प्रसन्नता का अनुभव करता है। करुणा भावना के अन्तर्गत कहा कि अहिंसा को भी दया बताया। जीवन के समस्त गतिविधियों में हमारे द्वारा किसी को कोई पीड़ा न हो, यही लक्ष्य रखने की जरूरत है। अनेकों बार होने वाली उलझनों में मध्यस्थ वृत्ति ही शांति की अनुभूति करा सकेगी। मध्यस्थ वृत्ति जागृत होने से जीवन में कलह, विवाद के प्रसंग कम हो जाएंगे। इसी प्रकार कुशल साधक धर्म का बीज जीवन में अंकुरित करने से पहले मनोभूमि को तैयार करता है।

21.7.2019
जीवन का सच्चा आनन्द शुद्ध चरित्र से है 
                                                    - समणी डॉ. सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि अनमोल जीवन को सुधारने का प्रयत्न किया जाय तो विकास दूर नहीं। शरीर की स्वस्थता के लिए विटामिन की गोलियां लेते हैं। परन्तु जीवन की स्वस्थता के बारे में भी चिंतन करना चाहिए। जीवन की सुंदरता के सच्चे विटामिन का विश्लेषण करते हुए डॉ. समणी ने कहा कि स्वास्थ्य तीन प्रकार के होते हैं - शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक। तीनों का संतुलन ही जीवन को सुंदर बना सकता है। जिस प्रकार विटामिन A अच्छी दृष्टि के लिए सहायक है, रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है ठीक उसी प्रकार जीवन की सुंदरता हेतु A यानी एबिलिटी (ability) अर्थात भीतर की क्षमता, योग्यता और सामर्थ्य बढ़ाना चाहिए। इसी प्रकार विटामिन बी, सी, डी और ई के महत्व को दर्शाते हुए उनके जीवन के लिए मिलने वाली शिक्षा पर प्रकाश डाला। डॉ. समणी ने कहा कि केवल शारीरिक सुंदरता से ज्यादा कुछ प्राप्त नहीं होता, अपितु मन, वचन और बुद्धि को निर्मल बनाते हुए आत्मा की सुंदरता का ध्यान रखना अति आवश्यक है। चरित्र मनुष्य जीवन का निर्माण करने वाला शिल्पी है, जो मनुष्य को सर्वोत्तम बनाता है। विटामिन D से डिसिप्लिन (discipline) यानी अनुशासन की शिक्षा मिलती है। जीवन संग्राम में या आध्यात्मिक विकास में अनुशासन होने पर ही नूतन प्रकाश प्राप्त किया जा सकता है। E यानी एजुकेशन (education) - ज्ञान आत्मा का ऐसा ऐश्वर्य है जिसे संसार के अन्य किसी बाह्य पदार्थ की आवश्यकता नहीं रहती है।

20.7.2019

नवकार मंत्र के निरंतर जाप से भीतर ऊर्जा का संचार होता है 
                                                - डॉ. समणी सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि साधना की शुरुआत पंच परमेष्ठि से यानी नवकार महामंत्र से होनी चाहिए, यहीं प्रथम मंगल है। अरिहंत भगवन का अनंत उपकार है कि उन्होंने हमें मोक्ष का धर्म का मार्ग बताया। अरिहंत का श्वेत वर्ण को पवित्रता का द्योतक है। इससे चित्त की चंचलता रुकेगी। मन सस्थिर होना प्रारम्भ हो जायेगा अगर सफेद रंग की कल्पना करते हुए अरिहंत का ध्यान करें तो। सिद्धों का लाल रंग अप्रमत्त का सूचक है। प्रमाद दूर करते हुए, सम्यक पुरुषार्थ द्वारा साधक सभी कर्मों को नाश कर मुक्त हो सकता है। आचार्य का पीला रंग मन को सक्रिय करने में सहायक है। उपाध्याय जी का नीला रंग कषाय को शांत करने वाला है। और साधु का प्रतीक के रूप में काला रंग दृढ़ता का द्योतक है। डॉ. समणी ने कहा कि नवकार मंत्र में देव, गुरु और धर्म तत्त्व तीनों समाहित है। देव पद में अरिहंत और सिद्ध, गुरु पद में आचार्य, उपाध्याय और साधु आते हैं। नमो शब्द धर्म का द्योतक है। जहां नमन है, वंदन है, विनय है वहां धर्म है। और जिसमें मोह, ममत्व, मान नहीं वहीं नम सकता है। उसी के जीवन में पंच परमेष्ठि  आलंबन बन जाते हैं। नमो में नमस्कार भी है, अहंकार का त्याग भी है और समता का समावेश भी है।

19.7.2019


 जागृत होना प्रगति का प्रथम सोपान है  
                                                   - समणी डॉ. सुयशनिधि 

जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि धर्म शुद्ध हृदय में ठहरता है। यदि मन में मलिनता हो तो जीवन में धर्म स्पर्श ही नहीं होता। आत्मा जब तक अशुद्ध दशा में बरतती है, विभाव दशा में रहती है तो संसारी कहलाती है। परम शुद्ध दशा को प्राप्त कर स्वभाव में स्थित हो जाना परमात्मा कहलाती है। तर्क उस दशा का वर्णन नहीं कर सकती और मति उसका अनुभव ग्रहण नहीं कर सकती। डॉ. समणी ने आत्मा की पांच श्रेणियों का विवेचन करते हुए कहा कि प्रसुप्त एवं सुप्त आत्मा मोह निद्रा में सोए होने की वजह से आत्म बोध प्राप्त नहीं करते। जागृत आत्मा की दशा से अनंत काल से चढ़ी हुई मिथ्यात्व की परतें टूट जाती हैं। आत्मा अपने स्वरूप का बोध प्राप्त कर जाग उठती है। उत्थित आत्मा की श्रेणी में साधक को प्रमाद त्यागने का संदेश दिया जाता है। और अंतिम समुत्थित आत्मा की श्रेणी श्रेष्ठ श्रेणी कही जाती है जिसमें साधक मोक्ष मार्ग पर कदम बढ़ाने की तैयारी करता है।

18.7.2019

धर्म जीवन के प्रत्येक पल, प्रत्येक व्यवहार में होना चाहिए
                                                 - समणी डॉ. सुयशनिधि

जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि जीवन शाश्वत नहीं है। सत्ता और दौलत शाश्वत नहीं है, रिश्ते नाते शाश्वत नहीं है - सब क्षणभंगुर है। इस परिवर्तनशील विश्व में केवल धर्म ही शाश्वत है। जो दुर्गति में गिरने वाले को धारण करें वह धर्म कहलाता है। महाभारत के अनुसार जिसका लक्षण अहिंसा है, वहीं धर्म है। मनुष्य अपनी स्थिति में चल रहा है, पृथ्वी अपनी धुरी पर स्थिर है, सूर्य अपने मंडल में गतिशील है, हवा चल रही है, अग्नि जल रही है, ऋतुएं अपना अपना प्रभाव समयानुसार दिखा रही है - ये संतुलन धर्म के कारण से है। डॉ. समणी ने कहा कि शरीर के पोषण के लिए धन आवश्यक है और आत्मा के पोषण के लिए धर्म आवश्यक है। धर्म उत्कृष्ट मंगल है। मंगल वह है जिससे विघ्न दूर हो। सांसारिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टि से मंगल का महत्व है। हर एक साधक का जीवन धर्ममय होने से खुशहाली गगन चूम लेती है। धर्म माता की तरह पोषण करती है। पिता की तरह रक्षा और मित्र की तरह प्रसन्न रखता है और संकट से बचाता है।

17.7.2019

                    धर्म का मार्ग ही मोक्ष का मार्ग है 
                                               - समणी डॉ. सुयशनिधि
जयगच्छाधिपति  व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि जीवन की साधना के लिए कुछ ऐसे अमोघ मार्ग बताए गए हैं जिन पर चलकर कोई भी साधक लघु से महान् बन सकता है, क्षुद्र से विराट बन सकता है। मकान की मजबूती उसकी नींव की मजबूती से होती है। उसी तरह मानव जीवन यदि मकान के समान है तो धर्म उसकी नींव है। धर्म के बिना जीवन पाशविक जीवन जैसा है। डॉ. समणी ने कहा कि धर्म रूपी नींव यदि कच्ची रहेगी तो मानव जीवन रूपी मकान शंका, कुतर्क, अज्ञान, अनाचार और अधर्म आदि के तूफ़ानों से हिल जाएगा और उसका पतन हुए बिना नहीं रहेगा। इसलिए मानव जीवन रूपी मकान की नींव की मजबूती के लिए नागरिकता, राष्ट्रीय भावना, धार्मिकता, कुलीनता, सामूहिकता तथा एकता आदि लौकिक धर्म की सर्व प्रथम आवश्यकता है। उसके पश्चात् धर्म को जीवन धर्म बनाने के लिए विचारशीलता, क्रियाशीलता आदि लोकोत्तर धर्मों के पालन की भी अनिवार्य आवश्यकता रहती है। डॉ. समणी ने कहा कि लौकिक और लोकोत्तर धर्मों के समन्वय से मानव जीवन का असली उद्देश्य सिद्ध होता है।

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